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हमारे कई मंदिरों मैं अश्लील मूर्तियाँ और भित्तिचित्र मंदिर के प्रवेश द्वार या बाहरी दीवारों पर अंकित होती हैं | तिरुपति में भी बिलकुल मुख्य द्वार के ऊपर ही मिथुन भाव की अंकित मूर्ती देखा तो सहज ही ये प्रश्न दिमाग मैं आया - आखिर हमारे देवालयों मैं अश्लील मूर्तियाँ भित्तिचित्र क्यों होते हैं? इधर-उधर बहुत खोजा पर इसका वास्तविक उत्तर मिला महर्षि वात्सयायन रचित कामसूत्र में | बाजार में उपलब्ध कामसूत्र की लगभग सभी पुस्तक ६४ आसनों और चित्रों पर ही केन्द्रित होती हैं | और ज्यादातर पाठक कामसूत्र को ६४ आसनों और चित्रों के लिए ही तो खरीदता है | पर उन पुस्तकों में कामसूत्र का वास्तविक तत्व गायब रहता है | महर्षि वात्सयायन रचित कामसूत्र के श्लोक थोड़े क्लिष्ट हैं, सरलीकरण हेतु कई भारतीय विद्वानों ने इसपे टीका लिखी | पर सबसे प्रमाणिक टीका का सौभाग्य प्राप्त हुआ मंगला टिका को | और इस हिंदी पुस्तक में लेखक ने मंगला टिका के आधार पर व्याख्या की है | लेखक ने और भी अन्य विद्वानों की टीकाओं का भी सुन्दर समावेश किया है इस पुस्तक में |
एक गृहस्थ के जीवन में संपूर्ण तृप्ति के बाद ही मोक्ष की कामना उत्पन्न होती है | संपूर्ण तृप्ति और उसके बाद मोक्ष, यही दो हमारे जीवन के लक्ष्य के सोपान हैं | कोणार्क, पूरी, खजुराहो, तिरुपति आदि के देवालयों मैं मिथुन मूर्तियों का अंकन मानव जीवन के लक्ष्य का प्रथम सोपान है | इसलिए इसे मंदिर के बहिर्द्वार पर ही अंकित/प्रतिष्ठित किया जाता है | द्वितीय सोपान मोक्ष की प्रतिष्ठा देव प्रतिमा के रूप मैं मंदिर के अंतर भाग मैं की जाती है | प्रवेश द्वार और देव प्रतिमा के मध्य जगमोहन बना रहता है, ये मोक्ष की छाया प्रतिक है | मंदिर के बाहरी द्वार या दीवारों पर उत्कीर्ण इन्द्रिय रस युक्त मिथुन मूर्तियाँ और भित्तिचित्र देव दर्शनार्थी को आनंद की अनुभूतियों को आत्मसात कर जीवन की प्रथम सीढ़ी - काम तृप्ति - को पार करने का संकेत कराती है | ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थी को ये स्मरण कराती है की जिस व्यक्ती ने जीवन के इस प्रथम सोपान ( काम तृप्ति ) को पार नहीं किया है, वो देव दर्शन - मोक्ष के द्वितीय सोपान पर पैर रखने का अधिकारी नहीं | दुसरे शब्दों मैं कहें तो देवालयों मैं मिथुन मूर्तियाँ मंदिर मैं प्रवेश करने से पहले दर्शनार्थीयों से एक प्रश्न पूछती हैं - "क्या तुमने काम पे विजय पा लिया?" उत्तर यदि नहीं है, तो तुम सामने रखे मोक्ष ( देव प्रतिमा ) को पाने के अधिकारी नहीं हो | ये गृहस्थ को एक और अत्यावश्यक कर्तव्य कि ओर ध्यान आकर्षित कराती है - मोक्षप्राप्ति के प्रयास करने के पूर्व वंशवृद्धि का कर्तव्य | ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थीयों को काम को लक्ष्य ना मानने की सलाह दे कर वास्तविक लक्ष्य मोक्ष (देव प्रतिमा) प्राप्ति की ओर इशारा भी करती है |
एक गृहस्थ के जीवन में संपूर्ण तृप्ति के बाद ही मोक्ष की कामना उत्पन्न होती है | संपूर्ण तृप्ति और उसके बाद मोक्ष, यही दो हमारे जीवन के लक्ष्य के सोपान हैं | कोणार्क, पूरी, खजुराहो, तिरुपति आदि के देवालयों मैं मिथुन मूर्तियों का अंकन मानव जीवन के लक्ष्य का प्रथम सोपान है | इसलिए इसे मंदिर के बहिर्द्वार पर ही अंकित/प्रतिष्ठित किया जाता है | द्वितीय सोपान मोक्ष की प्रतिष्ठा देव प्रतिमा के रूप मैं मंदिर के अंतर भाग मैं की जाती है | प्रवेश द्वार और देव प्रतिमा के मध्य जगमोहन बना रहता है, ये मोक्ष की छाया प्रतिक है | मंदिर के बाहरी द्वार या दीवारों पर उत्कीर्ण इन्द्रिय रस युक्त मिथुन मूर्तियाँ और भित्तिचित्र देव दर्शनार्थी को आनंद की अनुभूतियों को आत्मसात कर जीवन की प्रथम सीढ़ी - काम तृप्ति - को पार करने का संकेत कराती है | ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थी को ये स्मरण कराती है की जिस व्यक्ती ने जीवन के इस प्रथम सोपान ( काम तृप्ति ) को पार नहीं किया है, वो देव दर्शन - मोक्ष के द्वितीय सोपान पर पैर रखने का अधिकारी नहीं | दुसरे शब्दों मैं कहें तो देवालयों मैं मिथुन मूर्तियाँ मंदिर मैं प्रवेश करने से पहले दर्शनार्थीयों से एक प्रश्न पूछती हैं - "क्या तुमने काम पे विजय पा लिया?" उत्तर यदि नहीं है, तो तुम सामने रखे मोक्ष ( देव प्रतिमा ) को पाने के अधिकारी नहीं हो | ये गृहस्थ को एक और अत्यावश्यक कर्तव्य कि ओर ध्यान आकर्षित कराती है - मोक्षप्राप्ति के प्रयास करने के पूर्व वंशवृद्धि का कर्तव्य | ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थीयों को काम को लक्ष्य ना मानने की सलाह दे कर वास्तविक लक्ष्य मोक्ष (देव प्रतिमा) प्राप्ति की ओर इशारा भी करती है |
एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है - ब्रह्मचारियों, ऋषियों, साधु-संतों के लिए इससे क्या जवाब निकलेगा? ब्रह्मचारियों, ऋषियों, साधु-संतों से भी अश्लील मूर्तियाँ और भित्तिचित्र यही सवाल करती है - अश्लील मूर्तियाँ देखकर भी तुम्हारा ध्यान आध्यात्म और इश्वर मैं ही लगा है ना ? योग-साधना, भक्ती, वैराग्य आदि से तुमने काम पे विजय प्राप्त किया है या नहीं ? यदि नहीं तो तुम भी मोक्ष के अधिकारी नहीं हो |
इस प्रकार ये मिथुन मूर्तियाँ मनुष्य को हमेशा इश्वर या मोक्ष को प्राप्ति के लिए काम से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है | अश्लील भावों की मूर्तियाँ भौतिक सुख, भौतिक कुंठाओं और घिर्णास्पद अश्लील वातावरण (काम) मैं भी आशायुक्त आनंदमय लक्ष्य (मोक्ष) प्रस्तुत करती है | भारतीय कला का यह उद्देश्य समस्त विश्व के कला आदर्शों , उद्देश्यों एवं व्याख्या मानदंड से भिन्न और मौलिक है |
प्रश्न किया जा सकता है की मिथुन चित्र जैसे अश्लील , अशिव तत्वों के स्थान पर अन्य प्रतिक प्रस्तुत किये जा सकते थे/हैं ? - ये समझना नितांत भ्रम है की मिथुन मूर्तियाँ , मान्मथ भाव अशिव परक हैं | वस्तुतः शिवम् और सत्यम की साधना के ये सर्वोताम माध्यम हैं | हमारी संस्कृति और हमारा वाड्मय इसे परम तत्व मान कर इसकी साधना के लिए युग-युगांतर से हमें प्रेरित करता आ रहा है –
मैथुनंग परमं तत्वं सृष्टी स्थित्यंत कारणम्
मैथुनात जायते सिद्धिब्रर्हज्ञानं सदुर्लभम |
देव मंदिरों के कमनीय कला प्रस्तरों मैं हम एक ओर जीवन की सच्ची व्याख्या और उच्च कोटि की कला का निर्देशन तो दूसरी ओर पुरुष प्रकृति के मिलन की आध्यात्मिक व्याख्या पाते हैं | इन कला मूर्तियों मैं हमारे जीवन की व्याख्या शिवम् है , कला की कमनीय अभिव्यक्ती सुन्दरम है , रस्यमय मान्मथ भाव सत्यम है | इन्ही भावों को दृष्टिगत रखते हुए महर्षि वात्सयायन मैथुन क्रिया, मान्मथ क्रिया या आसन ना कह कर इसे 'योग' कहा है |
प्रश्न किया जा सकता है की मिथुन चित्र जैसे अश्लील , अशिव तत्वों के स्थान पर अन्य प्रतिक प्रस्तुत किये जा सकते थे/हैं ? - ये समझना नितांत भ्रम है की मिथुन मूर्तियाँ , मान्मथ भाव अशिव परक हैं | वस्तुतः शिवम् और सत्यम की साधना के ये सर्वोताम माध्यम हैं | हमारी संस्कृति और हमारा वाड्मय इसे परम तत्व मान कर इसकी साधना के लिए युग-युगांतर से हमें प्रेरित करता आ रहा है –
मैथुनंग परमं तत्वं सृष्टी स्थित्यंत कारणम्
मैथुनात जायते सिद्धिब्रर्हज्ञानं सदुर्लभम |
देव मंदिरों के कमनीय कला प्रस्तरों मैं हम एक ओर जीवन की सच्ची व्याख्या और उच्च कोटि की कला का निर्देशन तो दूसरी ओर पुरुष प्रकृति के मिलन की आध्यात्मिक व्याख्या पाते हैं | इन कला मूर्तियों मैं हमारे जीवन की व्याख्या शिवम् है , कला की कमनीय अभिव्यक्ती सुन्दरम है , रस्यमय मान्मथ भाव सत्यम है | इन्ही भावों को दृष्टिगत रखते हुए महर्षि वात्सयायन मैथुन क्रिया, मान्मथ क्रिया या आसन ना कह कर इसे 'योग' कहा है |
14 comments:
रोचक जानकारी दिया है आपने !
bahut bahut aabhar rakesh bhaai....
upyogi sargarbhit aalekh ke liye bahut bahut aabhar...
ROCHAK BAHOOT HI GAHRE ADHYAN KE SAATH LIKHI GAYEE POST .......
रोचक जानकारी !
मैंने भी ओशो की किसी किताब में पढ़ा था की , मंदिरों के बहार इन मूर्तियों का महत्त्व ये है की इश्वर की प्राप्ति कम विजय के बाद ही हो सकती है . इन सरे मंदिरों के भीतर आपको इश्वर की मूर्ती के अलावा अन्य मूर्तियों का न मिलना यही सिद्ध करता है . शुक्रिया जानकारी के लिए
हिन्दु संस्कृ्ति में प्रारंभ से ही "काम" को लेकर जो एक उन्मुक्तता रही है,उसे कभी भी किसी प्रकार की शर्म या झेंप नहीं,अपितु सम्मान की दृ्ष्टि से देखा जाता रहा है। यदि शास्त्रों का अध्ययन किया जाए तो पाएंगे कि देवराज इंद्र से लेकर भगवान विष्णु तक की कामक्रीड़ाओं का चित्रण वर्णन ग्रंथों में भरा पडा है,जिन्हे कि हम लोग नित्य पूजते हैं। श्रीसूक्त में देवी लक्ष्मी की कमनीय कटि और विपुल वक्षों का विशद वर्णन मिलता है। इसका कारण सिर्फ इतना है कि देवी-देवताओं का हमारी संस्कृति ने मानवीकरण किया,न सिर्फ शरीर से अपितु विचारों से भी और फिर सखाभाव और प्रेमभाव से उनकी भक्ति की। अब एक भक्त की दृ्ष्टि ने जिस ईश्वर को इतना सुंदर-मोहक-आकर्षक बनाया है तो फिर इन भित्तिचित्रों में "काम" का चित्रण तो एकदम स्वाभाविक बात है।
बहुत समय से इनके बारे में जानना चाहा ,पर सही जानकारी आपसे मिली।धन्यवाद
रोचक,बहुत मेहनत और अध्ययन का प्रमाण है ये पोस्ट्।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने ! आपके पोस्ट के दौरान बहुत ही अच्छी और रोचक जानकारी प्राप्त हुई !
अच्छी बात राकेश जी. सनतन और अन्य धर्मों में एकमात्र अंतर यही है कि यह मूलतः और अनततः प्रवृत्तिमार्गी है. इसीलिए यहां किसी भी मूलवृत्ति का निषेध नहीं है. बीच में कैसे इसमें कुछ नकारात्मक तत्व आ गए और किन कारणों से व किन आधारों पर वे ऊटपटांग नियम बनाने लग गए, यह बात समझ में नहीं आती. मिथुनमूर्तियां भी इसी बात की द्योतक हैं. दूसरी बात, काम को हासिल किए बग़ैर उस पर विजय पाने की बात भी मुझे निरर्थक लगती है. क्योंकि हमारे यहां काम को जीवन के चार प्रमुख पुरुषार्थों में से एक माना गया है. उस पर विजय प्राप्ति से आशय निश्चित रूप से उसकी तृप्ति ही रही होगी, उससे लड़ना नहीं हो सकता.
वाह बहुत अच्छे तरीके से आपने अश्लील मूर्तियों को सलिल बताया है ! और असल महत्व बताया है !!
प्राचीन भारतीय मन्दिरों में इन मूर्तियों की स्थापना के सन्दर्भ में मुझे जो थोड़ा बहुत ज्ञान पुस्तकों से मिला है, वह मैं पेश कर रहा हूँ:
एक समय बौद्ध धर्म का अपने देश में इतना प्रसार हो गया था की नाम मात्र ही सनातन धर्मी बचे थे. फिर धीरे धीरे बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हुआ और लोग अपने मूल की ओर वापस लौटे लेकिन इतने समय में विचारधारा परिवर्तित हो चुकी थी. सन्यास तथा भिक्षा यही जीवन था. ऐसे में (मुझे राजा का नाम और काल याद नहीं हैं क्योंकि यह पढ़े भी २५ वर्ष से अधिक हो gye) राजा ने अपने सलाहकारों, पुरोहितों से मशविरा किया और अंत में यही निर्णय लिया गया कि सांसारिक भोग प्रचारित किया जाए ताकि लोग सांसारिक आवश्यकताओं की ओर ध्यान आकृष्ट करें. मन्दिरों में सम्भोगरत मूर्तियों की कथा मुझे ऐसे ही प्राप्त हुई थी.
मैं यह नहीं कहता मेरा पढा प्रामाणिक है या वो पुस्तक दस्तवेज़ हो सकती है. मुझे जो इल्म था, मैंने बता दिया. मैं अब भी विद्यार्थी हूँ और चाहूँगा कि इस विषय पर जिन लोगों को भी जानकारियां हों, कृपया देकर मेरा ज्ञानवर्धन करें.
सर्वत जी टिप्पणी के लिए आभारी हूँ की आपने आगे आकर अपनी बात राखी | मोक्षप्राप्ति के प्रयास करने के पूर्व वंशवृद्धि का कर्तव्य का याद तो दिलाती ही हैं | और मुझे लगता है की ये ये किसी एक राजा विशेष का सोच नहीं था | क्योंकि इस प्रकार की मूर्तियाँ तो लगभग सभी प्राचीन मंदिरों मैं पायी जाती है | यदि एक राजा का कार्य होता तो सिर्फ उनके ही क्षेत्र के मंदिरों मैं ऐसा मिलता |
बहुत बढ़िया लेख है ! आपकी इस पोस्ट को पढकर बहुत ही अच्छी और रोचक जानकारी प्राप्त हुई
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