Tuesday, July 14, 2009

हिन्दी और लड़ाई

भाग- १  
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ऐसी कई लड़ाईयां है जो हम हिन्दी वाले पहले ही हार चुके हैं और अब इसपे जोर भी नहीं देते :

१) हिन्दी पढाई का माध्यम :-  अब तो हिन्दी वाले भी, दबी जुबान से ही सही, ये मान लिया है की अंगरेजी ही पढाई की भाषा हो | कुछ वर्षों पहले तक चर्चा होती थी की विज्ञान आदी के लिए अंगरेजी ज्यादा उपयुक्त है, वैसे कला विषयों मैं भी बहुत आगे जाने के लिए हिन्दी को छोड़ना पड़ता था | फिर भी एक स्तर तक कला विषयों के लिए हिन्दी बिलकुल मान्य थी | अब तो वो बात भी जाती रही | बात यहाँ तक आ पहुंची है की संस्कृत के लिए भी हिन्दी से ज्यादा अंगरेजी को तरजीह दी रही है | ये बात समझ से परे है की हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा अंगरेजी मैं संस्कृत को कैसे अच्छा समझा जा सकता है ?
 
२) काम काज की भाषा : - हिन्दी कभी दफ्तरों मैं काम काज की भाषा के रूप मैं पैठ बना ही नहीं पाई | और बनाएगी भी कैसे जब हमारे नेहरु जी ने ही कह दिया की  "हिन्दी तब तक पुरे देश के कम-काज की भाषा नहीं बन सकती जब तक की हिन्दी के विरोधी वाले हिन्दी को काम-काज की भाषा ना बनायें " | भला हिन्दी के विरोधी क्यों हिन्दी को काम-काज की भाषा बनायेगे ? और एक बात थी की हम अंग्रेजीदां लोग हमेशा दुसरे को छोटा और अपने को बड़ा साबित करना चाहते हैं और ऐसा हिन्दी मैं कर नहीं सकते तो इसके लिए अंगरेजी का ही सहारा ले लिया |

३) आम बोल-चल की भाषा :- कम से कम इस क्षेत्र मैं तो बाजी हमारे हाथ थी | पर यहाँ पे भी अब हिन्दी लगातार पिछड़ती जा रही है | चाहे वो लखनऊ, इलाहाबाद, भागलपुर, जमशेदपुर, भोपाल ... या दिल्ली हो हर जगह अंगरेजी का बोल बाला है | अगले ५-१० वर्षों मैं गावों, कस्बों मैं ही हिन्दी का कुछ सम्मान बचे तो बचे|

४) साहित्य, संस्कृति :- इस विधा मैं हमलोग अच्छे थे फिर भी कमियां बहुत सारी थी | हमने कभी हिन्दी की पुस्तक खरीद कर पढी नहीं | मांग-चांग कर काम चला लिया, हिन्दी की पुस्तकें बिकी नहीं तो हिन्दी के लेखक सड़क पे आने लगे और हिन्दी मैं निराशावाद हावी हो गया | वैसे आज भी हमलोग सुधरे नहीं है, अभी भी हमलोग हिन्दी की कोई पुस्तक खरीदना हे नहीं चाहते | अपने देश का इतिहास देखें तो पाएंगे की साहित्य के फलने-फूलने मैं राजाओं का बड़ा हाथ होता था | आजादी के बाद तो हमारे शासकों ने हिन्दी को सौतेला ही माना और कभी भी इसे सही पोसक तत्व नहीं प्रदान किया | हिन्दी ने जो भी विकास किया है वो अपने बल पे किया है |

५) मनोरंजन की भाषा :- हिन्दी को बढाने मैं हिंदी फिल्मों का सहयोग जरुर मिला |  कई देशों-प्रदेशों मैं लोग हिन्दी सिखने का प्रयास करने लगे सिर्फ हिन्दी फिल्मों को देखने समझने के लिए | लेकिन यहाँ पे भी अब अंगरेजी ने अतिक्रमण कर लिया है | हिन्दी अभिनेता-अभिनेत्री अब फिल्मों मैं भले ही डब की हुई हिन्दी बोल लें पर किसी मंच पे शायाद  ही ये हिन्दी बोलते हैं | वैसे फिल्मों मैं भी हिन्दी अब 'ENGLISH एक्सेंट' मैं ही बोली जाने लगी है | कई भारतीय फिल्म तो बस पूरी की पूरी अंग्रेजी मैं ही बनी है और ऐसे फिल्मों की संख्यां भविष्य मैं बढेंगी ही | 
........ जारी ....

6 comments:

Atmaram Sharma said...

आपने बहुत सही - बहुत सारे मुद्दों को रेखांकित किया है और शायद अब वक्त आ गया है कि हिंदुस्तानियत को बरकरार रखने के लिए हमें हिंदी के संदर्भ में अपने अंतर्विरोधों को भली-भाँति समझना होगा और निष्कर्ष निकालना होगा कि सचमुच हिंदी से हमारा क्या भला होने वाला है. चलिए ब्लॉग जगत से ही इस बाबत शुरूआत हो सकती है.

विचारोत्तेजक विमर्श की संभावनाओं से भरी पोस्ट लिखने के लिए साधुवाद.

Sushma Sharma said...

लो जी कर लो बात. हिंदी की बात हो और हिंदी फिल्मों के दोगले योगदान की चर्चा न हो यह कैसे हो सकता है. अरे भइय्या, हिंदी के विकास में हिंदी फिल्मों और हिंदी फिल्मी गानों ने क्या और कैसा योगदान दिया है, इस पर एक नामी ब्यूरोक्रेट ने थीसिसनुमा किताब (पोथन्ना) ही लिख दी - एक था राजा, एक थी रानी, दोनों मर गए, खत्म कहानी - मार्का. और मज़ा देखिये कि वे अब देश के नामी फिल्म प्रशिक्षण संस्थान के कर्ता-धर्ता बने हुए हैं. उनसे सवाल करने को जी करता है कि इस देश में फिल्मों से कई गुना समृद्ध परम्परा तो नौटंकी और रामलीला की रही है, जिसने कई मायनों में हिंदी के विकास और विस्तार में योगदान दिया है, उस पर भी कुछ सार्थक लिखा गया होता.

हिंदी की यह दशा एक दिन में नहीं हो गई है. यह देश का लाइलाज रोग है, खाएँगे हिंदी का, गाएँगे अँगरेजी का.

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

धन्यवाद सुषमा जी, अच्छा किया आपने मुझे याद दिलाया की इस देश में फिल्मों से कई गुना समृद्ध परम्परा तो नौटंकी और रामलीला की रही है, जिसने कई मायनों में हिंदी के विकास और विस्तार में योगदान दिया है | इसको भूलने के लिए क्षमा चाहूँगा | नौटंकी और रामलीला पे सामग्री जुटाने की कोशिश करूंगा |

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

इतना निराशावाद भी अनावश्यक है। हिंदी सरकारी प्रयासों से नहीं फैलेगी, लोगों की आवश्यकताओं के कारण फैलेगी और फैल रही है। भारत सिनेमा और शहर तक सीमित नहीं है। असली भारत गांव में है, जहां 70 प्रतिशत आबादी बसती है। वे हिंदी को जिंदा रखेंगे और फलाएंगे-फुलाएंगे, जैसे वे शुरू से ही करते आ रहे हैं।

जगदीश त्रिपाठी said...

हम हिंदू हिंदुस्तानी ही जब हिंदी बोल न पाएंगे,
हिंदुस्तानी ग्यानी का यह ग्यान न जाने क्या होगा
निहित स्वार्थ वश भूलरहे जो अपनी भाषा-संस्कृति को
अपने प्यारे भारत का भगवान न जाने क्या होगा

दर्पण साह said...

rakesh ji aapka ye lekh vicharniya hai...

..par jab cow belt waalon ko hi chinta nahi, desh ke thekedaaron ko hi chinta nahi to hum to logon ko kewal jagrook kar sakte hain.