Wednesday, July 29, 2009

एक पुराणी खबर

ये खबर है थोडी पुराणी, पर है आँखें खोलनेवाली | उलाल (मंगलौर, कर्णाटक) : पुलिस ने यहाँ एक चर्च के केला बगान को तहस-नहस करने के जुर्म मैं कुछ लोगों को गिरफ्तार किया | आप कहेंगे इसमें कौन सी नई बात है ? ये खबर थोडी रोचक है क्योंकि बागन मैं कई भगवा झंडा मिला है | अरे अब तो स्थिति बिलकुल साफ़ है, ये उग्रवादी हिन्दू संगठन की गन्दी करतूत है, क्यों? यहीं तो हम गच्चा खा जाते हैं | कभी कभी जो सामने दिखता है वो सच नहीं होता | पकडे गए लोगों का नाम बताता हूँ (आप समझ जायेंगे) :
१. जेसन वर्गिस (२३)
२. विनीत सन्नी रोजारियो (२१)
३. अराकी अल्फ्रेड (२०)
४. रोशन कटींनहो (२०)
(चरों नित्याधर नगर से )
५. रोनाल्ड रोशन (प्रकाश नगर)
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इस घटना को तब अंजाम दिया गया जब हिन्दू समाजोत्सव का कार्यक्रम चल रहा था | इस घटना की खबर कुछ समाचार पत्रों मैं छापी पर आधी अधूरी , सच से बिलकुल अलग | फोटो और विस्तार से घटना को पढने के लिए यहां क्लिक करें : http://www.daijiworld.com/news/news_disp.asp?n_id=57924

Friday, July 24, 2009

तुम भी थिरको ना !

रीमिक्स गाना लगा वो थिरकने लगती है
कहती है तुम भी थिरको ना ! तुम तो कभी मेरा साथ देते ही नहीं |
मैं कहता हूँ कोई ठुमरी, कजरी, होरी, चैता लगाओ मन आनंद विभोर हो जावेगा
कहती है क्यों अभी तक बासी-पुराणी ठुमरी, कजरी पे ही अटके हो ?
उनकी कान खडी हो जाती है जब मैं नमस्कार करता और रिप्लाय हाय मैं आता
कहती है देखो वो कितने शिष्टाचारी हैं, तुम्हें तो हाय बोलना भी नहीं आता |

मैं चुप रहता हूँ, वो कहती किस पुराने आदमी से पाला पड़ा है !
तुम तो निरा मुर्ख हो परिवर्तन को समझ नहीं पाए हो अब तक
क्या कृष्ण ने गीता मैं नहीं कहा - परिवर्तन प्रकृति का नियम है
फिर इसे परिवर्तन मान, क्यों नहीं अपने को कहलाते माडर्न ?
रीमिक्स, हाय, हेलो भी तो आज का परिवर्तन है, क्यों नहीं हमारी तरह मानते ये गीता की बात ?

समझाऊं कैसे ? शुद्ध नक़ल को कैसे मानु परिवर्तन ?
कैसे बताऊँ कि मौलिकता बिना परिवर्तन, परिवर्तन नहीं
आखिर नक़ल और परिवर्तन मैं कुछ तो फर्क करो |
समझाने की सारी कोशिशें नाकाम गई
आप भी कोशिश कर लो, शायद समझा सको तो बता देना |

Monday, July 20, 2009

हिन्दी और लड़ाई (भाग - २)

हिन्दी और लड़ाई 

भाग - २
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अहिन्दी भाषी क्षेत्रों मैं लोगों ने कभी हिन्दी को अपनाया ही नहीं, हिन्दी के साथ सौतेला से भी बुरा व्यवहार होता रहा है | इन लोगों ने सदा अंगरेजी को अपना माना और हिन्दी को  दुत्कारा | इसपे भी तर्क देकर कहते हैं की हिन्दी यदि आएगी तो उनकी क्षेत्रीय भाषा ख़तम हो जायेगी | थोडा गहराई में जाएँ तो पता चलता है की आम तौर पे अहिन्दी भाषी लोग हिन्दी भाषी लोगों से लगभग नफरत सा करते हैं (और इनके पीछे भी कई चीजें हैं कभी विस्तार से चर्चा करेंगे इस पे) | अब जब अंगरेजी इनकी क्षेत्रीय भाषाओँ को धीरे-धीरे निगलने लगी है, तब कहीं जाकर ये नींद से जागे भर हैं | अंगरेजी मैं 'SIGN BOARDS'  आदी पे कालिख पोतने लगे हैं और ऑटो वाले, बस वाले आदी को फरमान भी जारी कर रहे की यदि कोई हिंदी मैं बोले तो जवाब मत दो | मेरा तो उनसे यही कहना है बंधू अब देर हो चुकी है और अब तो अंगरेजी वाली अजगर आपके रोके ना रुकेगी | यदी अहिन्दी भाषी लोग हिन्दी को बड़ी बहिन मान कर अपना लेते तो आज ये नौबत नहीं आती | हिन्दी रहती तो क्षेत्रीय भाषाओँ का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता था | हिन्दी का इतिहास देखें इसने कभी किसी पे रौब-धौंस नहीं जमाई,  इसने तो क्षेत्रीय भाषाओँ को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है |

किसी भी राष्ट्र को एक सूत्र मैं बांधे रखने मैं भाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है | अंगरेजी के अंध भक्त भी इसपे राजी होंगे की इसमें अपनापन नहीं और इसमें भारत को जोड़ कर रखने की शक्ती नहीं | हिन्दी की दुर्दशा का कारण हमारी सरकार और बजारवाद के साथ साथ हम भी हैं | यहूदियों को देखें, पुरी दुनियाँ मैं ये लोग खुद या एक ग्रुप बनाकर अपने बच्चे को बचपन मैं ही हिब्रू सिखाते ही नहीं वरण इसके प्रती प्रेम की भावना भी जगा देते हैं | भारत के बाहर भी, जहाँ अपने देश (भारत) की अपेक्षा अपने सभ्यता-संस्कृति को लेकर ज्यादा सजगता-उत्साह हैं, बच्चों की हिन्दी अनिवार्यता को गंभीरता से नहीं लिया जाता | अपने देश मैं तो इसपे एक मुहावरा सा बन गया है "हिन्दी की 'MARKET VALUE' नहीं है, इसे पढ़-लिख के क्या मिलेगा?" | वैसे सोंचे तो अपनी माँ की भी  'MARKET VALUE' नहीं होती, तो क्या उसकी भी सेवा बंद कर दी जाए | हिन्दी आज भी अपने ही बेटों के आगे याचना कर रही है "कभी तो नफ़ा-नुकसान से परे हट कर, माँ समझ कर सेवा करो" | हिन्दी को सिर्फ एक भाषा समझने की भूल ना की जाए, ये  तो भारत की प्राण वायु है | हिन्दी बिना भारत निष्प्राण और जड़ भर रह जाएगा |

अंगरेजी पढ़ी के जदपि, सब गुण होत प्रवीण
पर निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन |  - भारतेंदु हरिश्चंद्र 

निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल 
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत ना हिय के शूल |  - भारतेंदु हरिश्चंद्र 

Wednesday, July 15, 2009

माइकल जेक्सन या उस्ताद जी

पिछले दिनों माइकल जेक्सन की मृत्यु (जून २५)  के आसपास ही एक महान शास्त्रीय संगीतग्य उस्ताद अली अकबर खान (सरोद वादक) का देहावसान (जून १९) अमेरिका मैं हुआ | शास्त्रीय संगीतग्य के जानकारों को छोड़ दें तो उस्ताद साहब की मृत्यु की खबर शायद ही आम लोगों तक पहुंची हो | जिधर देखो उधर देश की सारे अखबार, न्यूज़ चेनल विशेषकर अंग्रेजी भाषा वाले बस माइकल जेक्सन पे ध्यान केन्द्रित किये हुए थे | उस्ताद जी के लिए एक श्रद्धांजली सभा दिल्ली में आयोजित कि गई थी जिसमे देश के प्रख्यात कलाकारों ने भाग लिया पर अगले दिन के समाचार पत्रों मैं भी मुख्याप्रिस्ट पर इसे जगह नहीं मिली, मुख्याप्रिस्ट पर तो जेक्सन साहब विराजमान थे | इस तरह  उस्ताद साहब की खबर को बस कुछ पंगातियों मैं किसी कोने मैं दबा दिया गया | वाह, क्या विकाश किया है हमने ! हमारे लिए तो शायाद अपनी संस्कृति के प्रती उदासीनता ही विकाश की पहली सिड़ी है !

क्या जेक्सन जी उस्ताद साहब से ज्यादा महान थे ? जेक्सन साहब ने अकूत संपत्ति अर्जित की फीर भी सर से पाँव तक कर्ज मैं डूबे थे, बिना DRUGS - दवाइयों के नींद ही नहीं आती थी, कई बार यौन शोषण के केस मैं भी फसे | साहब की मृत्यु भी शायद DRUGS & दवाइयों के overdose से हुई | वैसे पॉप सिंगर मैं DRUGS आदि का सेवन आम बात है | ज्यादातर  पॉप सिंगर की तरह ही जेक्सन भी शायद ही कभी कला या आर्ट का ख्याल रखते थे | पॉप सिंगर तो येन-केन-प्रकरेन बस अपने show को सफल बनाने मैं लगे रहते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें दर्शकों के सामने थोडी देर के लिए अपने को ही मुर्ख क्यों ना बनाना पड़े | DRUGS और अभद्र भाषा तो इनके लिए आम बात है | 

drugs , यौन शोषण, अभद्र भाषा से परे हमारे शास्त्रीय संगीतग्य अपनी पुरी जिन्दगी संगीत साधना और कला मैं लगा देते हैं | संगीत को इतना पवित्र बना देते हैं की इश्वर की पूजा भी संगीत से ही करने लगते हैं | ये जब भी गाते-बजाते हैं इश्वर को समर्पित ह्रदय से निकली आवाज़ होती है | इनके लिए धन या फेम का महत्व नहीं के बराबर होता है | ये अपने श्रोताओं मैं भगवान् का अंश देख कर अपने सुर-संगीत से पूजा करते हैं | 

इस दुर्दशा का मुख्या कारण है हमारी सिक्षा पद्धती | ऐसे कितने सिक्षर्थी है जो महान कवि कालिदास को, संस्कृत या अन्य भाषाओँ मैं अनुदित, पढ़ा है ? क्या कभी अर्थशास्त्र के उच्च कक्षाओं मैं भी कौटिल्य अर्थशाश्त्र की चर्चा भी होती है ? बड़े-बड़े स्कूलों मैं चले जाएँ और शिक्षार्थियों से शास्त्रीय संगीतग्य का नाम बताने को कहिये, एक का भी नाम बता दें तो बड़ी बात होगी | श्री मुरली मनोहर जोशी जी  ने इसी कमी को देखकर स्कूलों मैं भारतीय संस्कृति को पाठ्यक्रम मैं सामिल करने का प्रयास किया तो सेकुलर मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इसे तुंरत सांप्रदायिक करार दे दिया | इन सेकुलार्स के लिए भारतीय संस्कृति ही कोम्मुनल है | वस्तुतः अन्दर से ये सेकुलर और तथाकथित बुद्धिजीवि लोग डरे हुए हैं कि भारतीय संस्कृति का जोर चला तो इनकी दूकान बंद हो जायेगी | इन संस्कारहीन, असांस्कृतिक लोगों को कोई पूछने वाला ही नहीं रहेगा | जब तक पश्चिम का प्रभाव है  अंग्रेजीदा लोग समारे सर चढ़ कर नाच लें, जैसे ही भारतीय संस्कृति का प्रभाव बढा ये  कहीं के नहीं रहेंगे |

(हिन्दी और लड़ाई का दूसरा भाग एक-दो दिनों मैं पोस्ट करूँगा )

Tuesday, July 14, 2009

हिन्दी और लड़ाई

भाग- १  
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ऐसी कई लड़ाईयां है जो हम हिन्दी वाले पहले ही हार चुके हैं और अब इसपे जोर भी नहीं देते :

१) हिन्दी पढाई का माध्यम :-  अब तो हिन्दी वाले भी, दबी जुबान से ही सही, ये मान लिया है की अंगरेजी ही पढाई की भाषा हो | कुछ वर्षों पहले तक चर्चा होती थी की विज्ञान आदी के लिए अंगरेजी ज्यादा उपयुक्त है, वैसे कला विषयों मैं भी बहुत आगे जाने के लिए हिन्दी को छोड़ना पड़ता था | फिर भी एक स्तर तक कला विषयों के लिए हिन्दी बिलकुल मान्य थी | अब तो वो बात भी जाती रही | बात यहाँ तक आ पहुंची है की संस्कृत के लिए भी हिन्दी से ज्यादा अंगरेजी को तरजीह दी रही है | ये बात समझ से परे है की हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा अंगरेजी मैं संस्कृत को कैसे अच्छा समझा जा सकता है ?
 
२) काम काज की भाषा : - हिन्दी कभी दफ्तरों मैं काम काज की भाषा के रूप मैं पैठ बना ही नहीं पाई | और बनाएगी भी कैसे जब हमारे नेहरु जी ने ही कह दिया की  "हिन्दी तब तक पुरे देश के कम-काज की भाषा नहीं बन सकती जब तक की हिन्दी के विरोधी वाले हिन्दी को काम-काज की भाषा ना बनायें " | भला हिन्दी के विरोधी क्यों हिन्दी को काम-काज की भाषा बनायेगे ? और एक बात थी की हम अंग्रेजीदां लोग हमेशा दुसरे को छोटा और अपने को बड़ा साबित करना चाहते हैं और ऐसा हिन्दी मैं कर नहीं सकते तो इसके लिए अंगरेजी का ही सहारा ले लिया |

३) आम बोल-चल की भाषा :- कम से कम इस क्षेत्र मैं तो बाजी हमारे हाथ थी | पर यहाँ पे भी अब हिन्दी लगातार पिछड़ती जा रही है | चाहे वो लखनऊ, इलाहाबाद, भागलपुर, जमशेदपुर, भोपाल ... या दिल्ली हो हर जगह अंगरेजी का बोल बाला है | अगले ५-१० वर्षों मैं गावों, कस्बों मैं ही हिन्दी का कुछ सम्मान बचे तो बचे|

४) साहित्य, संस्कृति :- इस विधा मैं हमलोग अच्छे थे फिर भी कमियां बहुत सारी थी | हमने कभी हिन्दी की पुस्तक खरीद कर पढी नहीं | मांग-चांग कर काम चला लिया, हिन्दी की पुस्तकें बिकी नहीं तो हिन्दी के लेखक सड़क पे आने लगे और हिन्दी मैं निराशावाद हावी हो गया | वैसे आज भी हमलोग सुधरे नहीं है, अभी भी हमलोग हिन्दी की कोई पुस्तक खरीदना हे नहीं चाहते | अपने देश का इतिहास देखें तो पाएंगे की साहित्य के फलने-फूलने मैं राजाओं का बड़ा हाथ होता था | आजादी के बाद तो हमारे शासकों ने हिन्दी को सौतेला ही माना और कभी भी इसे सही पोसक तत्व नहीं प्रदान किया | हिन्दी ने जो भी विकास किया है वो अपने बल पे किया है |

५) मनोरंजन की भाषा :- हिन्दी को बढाने मैं हिंदी फिल्मों का सहयोग जरुर मिला |  कई देशों-प्रदेशों मैं लोग हिन्दी सिखने का प्रयास करने लगे सिर्फ हिन्दी फिल्मों को देखने समझने के लिए | लेकिन यहाँ पे भी अब अंगरेजी ने अतिक्रमण कर लिया है | हिन्दी अभिनेता-अभिनेत्री अब फिल्मों मैं भले ही डब की हुई हिन्दी बोल लें पर किसी मंच पे शायाद  ही ये हिन्दी बोलते हैं | वैसे फिल्मों मैं भी हिन्दी अब 'ENGLISH एक्सेंट' मैं ही बोली जाने लगी है | कई भारतीय फिल्म तो बस पूरी की पूरी अंग्रेजी मैं ही बनी है और ऐसे फिल्मों की संख्यां भविष्य मैं बढेंगी ही | 
........ जारी ....

Thursday, July 9, 2009

हिन्दी ब्लॉग जगत, एक सवाल ?

आज हिन्दी ब्लग जगत को देख कर एक हिन्दी प्रेमी जरुर खुश होगा, मैं तो गद-गद हूँ | गर्व महसूस होता है, इतना कुछ हिन्दी मैं लिखा देख कर | ये कहने मैं मुझे कोई संकोच नहीं की कई मामलों मैं बहुत अच्छा लिखा जा रहा, अंगरेजी मैं लिखने वाले इतना अच्छा लिख ही नहीं सकते कम से कम भारत के संधर्भ main| ओर लिखने की सच्चे मन से कोशिश होगी तो भी भारतीयता का पुट अंग्रेजी मैं कहाँ से दे पाएंगे ? हिंदी ब्लॉग लेखन मैं सुन्दर शैली के साथ-साथ विषय का विस्तार भी है |  सभी पीढी के लोग दिल से लिख रहे हैं | अंग्रेजी के एक स्थापित पत्रकार को हिन्दी ब्लॉग मैं लिखता देख कर अचंबित हो गया | यही पत्रकार बंधू पहले अंग्रेजी मैं ब्लॉग लिखा करते थे | इस बंधू के हिन्दी आलेखों को पढ़ कर ये महसूस हुआ की वो हिन्दी मैं काफी अच्छा लिख रहे हैं, अंग्रेजी से कहीं बेहतर | हिन्दी उसकी मातृभाषा है, मैं उन्हें वैयक्तिगत तौर पे जानता हूँ |

अपवाद स्वरुप कुछ ब्लॉग हैं जिनका ध्यान बस प्रचार पाने पे ही केन्द्रित है | मेरे जेहन मैं एक सवाल बराबर उठ रहा है की जब हिन्दी मैं अच्छा लिखा जा रहा है तो क्यों आज भी हिन्दी की कोई रास्ट्रीय स्तर पे स्थापित पत्रिका नहीं दिखाई देती?  इंडिया टुडे , आउटलुक (हिंदी) को सही मायने मैं हिंदी पत्रिका नहीं माना जा सकता | इंडिया टुडे (हिंदी) तो अंगरेजी का अक्षरसह  अनुवाद है | आउटलुक (हिंदी) थोडा बेह्तार है पर वो बात नहीं है जो कभी धर्मयुग, दिनमान आदि मैं हुआ करता था | पता नहीं अलोक मेहता (संपादक आउटलुक हिन्दी) क्या कर रहे हैं, शायद वो अपनी सारी उर्जा संघ विरोध मैं ही खर्च कर रहे हैं |

हिन्दी ब्लॉग जगत की प्रगती को देख थोडा आशंकित भी हूँ | आखिर ये हिन्दी प्रेम कितने दिनों का है ? अभी जो कोई भी लिख रहे हैं उनकी मातृभाषा ही हिन्दी है, हिन्दी मैं ही इनलोगों ने खेला, हशा, रोया, सपने देखे ओर बड़े हुए | किन्तु यही बात हम आने वाली पीढी (अगले ५-१० वर्ष ) के बारे मैं नहीं कह सकते | हमारे बच्छे तो अब अंग्रेजी मैं ही जी रहे हैं | हिंदी तो बमुश्किल ये लोग पढ़-लिख पाते हैं | ओर इस नई पीढी की भारतीयता, सभ्यता-संस्कृति की समझ भी अजोबो गरीब है | ये हर भारतीय सोच को पश्चिम के चश्मे से देखते हैं | इस नई पीढी के बाहर आते ही शायद चाय वाला, समोशा वाला, रिक्शा वाला भी धीरे-धीरे अंग्रेजी बोलने लगेंगे | बाकी लोगों ने तो पहले से ही हिन्दी को तिलंजाली दे दी है | तो क्या इस बात से ये समझा जाए की हिन्दी भाषा धीरे-धीरे सिमट रही है , और अंत मैं अंगरेजी हिन्दी को भी कुछ अन्य भाषाओँ के साथ निगल जायेगी? 

Monday, July 6, 2009

उत्तिष्ट, उत्तिष्ट, उत्तिष्ट ..

भा.ज.पा. की हार से एक सच्चा हिन्दू हतास और किकर्तव्यमुड की अवस्था मैं है | हम हिन्दुओं को सच पूछे तो समझ मैं ही नहीं आ रहा है की क्या करें अब ? भा.ज.पा. अपनी पुराणी गलतियों से सबक लेना नहीं चाहती, पार्टी के बड़े-बड़े नेता बस अपनी ही रोटी सकने मैं लगे हैं | सच्चा हिन्दू दिग्भ्रमित है,  क्योंकी उनकी अपनी पार्टी  भा.ज.पा. कांग्रेस के रस्ते पे चल चुकी है | कई ऐसे मित्रों से मिलता हूँ जिसकी आँखें भर आती है आज हिन्दुओं की दुर्दशा पे | आज हिन्दू किसे अपना कहे, भा.ज.पा. तो अपने को एक बूढा हारा  हुआ सेर मान बैठी है जो आगे संगठित हो कर लड़ने की इच्छा शक्ती भी खोती जा रही है | 

जो हुआ सो हुआ, आखिर कर कब तक हम हिन्दू ऐसे ही शोक मानते रहेंगे? उठो भाइयों अपनी जाती , धन के लिए किसी भी हद तक निचे गिरना वाली संकीर्णता को छोडो और उठ कर दिखाओ की हिन्दू मरा नहीं है और ना मरेगा | पूरा EUROPE एक दसक मैं ही क्रिश्चियन बन गया किन्तु भारत १००० साल गुलाम रहे के बाद भी हिन्दू बाहुल है, ये क्या साबित नहीं करते की हिन्दू हार नहीं मानाने वाला | खड़े हो, बड़े लेवल की छोडो अपने आस पास ही कई ऐसे मौके आयेंगे जहाँ हम ये साबित कर सकते हैं की देखो भगवान् मैंने बिना अपने स्वार्थ के ये सब अपने देश, धर्मं के लिए किया | कोई देखे या न देखे भगवान् देख रहा है बस यही सोच कर हम हिन्दुओं को अपने देश धर्मं के लिए काम करना पड़ेगा | 

एक पढ़ा लिखा हिन्दू आम तौर पे यही बोलता है की आर.एस.एस. वाले कुछ करते नहीं | अरे भाई जब हम खुद ही अपने को आर.एस.एस. से नहीं जोडेंगे तो आर.एस.एस. का काम कोई मशीन आकर कर देगा ? आर.एस.एस. या हिन्दू संस्था से जुड़ने मैं सरम कैसी, कोई चोरी डाका तो नहीं कर रहे हैं | गुलामी वाली मानसिकता को त्यागो और अपने वैदिक संस्कृति को जानो, सम्मान करो | सिर्फ मुह से हिन्दू-हिन्दू और कर्म से कुछ और ये नहीं चलेगा | माइकल जेक्सन, मेडोना आदि अच्छे लगते हैं तो ठीक है पर कभी कभी अपने भीमसेन, जसराज जी ... को भी सुन लिया करो | हैरी पॉटर के साथ साथ कभी सच्चे मन से एक-दो पुराण की कहानी भी पढ़ लिया करो | बच्चे को इंग्लिश के सारी रायाम्स याद करा दिए अब अपनी पंचतंत्र की एक-दो कहानी भी याद करा दो | जींस तो रोज पहनते हो, मंदिरों मैं ही सही कभी कभी धोती तो पहन लिया करो | क्या एक मुस्लिम दुसरे मुस्लिम भाई को देख कर सलाम आलेकुम कहने मैं कोई सरम महूस करता है ? नहीं , तो फिर हम हिन्दू क्यों नमस्कार, प्रणाम, या राम-राम कहने से जी चुराते हैं ? अपने को  PURE WESTERN बना के रखना और बाकियों से ये आशा करना की वो सभ्यता - संस्कृति का रक्षा-पालन करे, क्यों ऐसे ही चलेगा हम पढ़े लिखे लोगों का धर्मं, सभ्यता-सांस्कृतिक प्रेम ? युद्ध तो हमें ही लड़नी है, भगवान् तो हमें सिर्फ रास्ता दिखायेंगे | 

Sunday, July 5, 2009

बाबा और आस्था

मित्रों के साथ बैठे थे, वही आलतू-फालतू शौपिंग, दफ्तर, सिनेमा, क्रिकेट... की बातें हो रही थी |  एक सन्दर्भ निकला और बात-चीत के दिशा धर्मं-अध्यात्म की ओर मुड़ने लगी | वैसे धर्म-अध्यात्म आम तौर पे चर्चा का विषय नहीं होता | कभी-कभार गलती से चर्चा या बातचीत की गाडी इस मार्ग पे आ जाये तो सबको ये एहसास होते देर नहीं लगती की गाड़ी गलत लाइन पे चली गई है, और इसे तुंरत गलत लाइन (धर्मं-अध्यात्म) से सही लाइन ( शौपिंग, दफ्तर, सिनेमा, क्रिकेट ....) पे वापस ले आया जाता | आपने यदि धर्मं-अध्यात्म वाली लाइन पे गाड़ी थोडी चला दी तो सारे यात्री बिना अगले पडाव का इन्तजार किये चैन पुलिंग कर जहाँ तहां कूदते नजर आयेंगे |  धर्मं-अध्यात्म वाली लाइन से उतारते ही एक लम्बी साँस छोड़ते हैं, जान बची तो लाखों पाए | खैर हमारी बातचीत भाग्य या दुर्भाग्यवास धर्मं-अध्यात्म वाली लाइन पे चैन पुल्लिंग होने से पहले तक चली | एक मित्र ने पते की बात कही - "देखिये भाई मैं पहले धर्मं-अध्यात्म, गुरु आदी मैं बड़ा विश्वास करता था, किन्तु जिस दिन से फलां 'बाबा' के बारे मैं सुना की वो गलत काम करते थे उसी दिन से  धर्मं-अध्यात्म, गुरु आदी को त्याग दिया ओर अब इसपे विश्वास नहीं करता" | मन तो हुआ की इसका जवाब दें पर सब लोगों के मन की बात को भांप कर चुपपी मार गया |  मित्र से पूछना था कि भाई सलमान खान, सहरुख खान, कारन जौहर ...  (और ना जाने कितने ..) की फिल्में तो जरुर देखते होंगे, उनकी एक-दो बकवास फिल्में देखने के बाद आगे की सारी फोल्मों को तिलांजलि दे देते हो क्या? यदि नहीं, तो फिर एक-दो बाबा के गलत हो जाने से क्या इश्वर-अध्यात्म का अस्तित्व को नकारना जा सकता है क्या ?  क्या हमारी आस्था बस एक-दो बाबा पे ही आ टिकी हैं की वो गलत साबित हुए नहीं की अपनी आस्था गई?

Wednesday, July 1, 2009

साउथ इंडियन - नॉर्थ इंडियन भगवान्

अमेरका मैं मुझे ये अहसास हुआ की हिन्दू पृथ्वी के किसी कोने मैं चले जाएँ, अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारन  संगठित नहीं रह सकते | बात यहाँ तक पहुँच गई की भगवान् को भी विभाजीत करने पे तुल गए| मुख्या धारा के ज्यादातर मंदिरों मैं यहाँ साउथ इंडियन - नॉर्थ इंडियन भगवान् मैं फासला आम बात है | मंदिरों मैं साउथ इंडियन - नॉर्थ इंडियन भगवान् की मूर्ति स्थापित करने के लिए मुहम चलते हैं, ताज्जुब तो तब होता है जब मंदिर ये पूछता है की आप किस भगवान् की मूर्ती के लिए दान दे रहे है ? और दान देने वाला भी इस सर्त पे ही दान देता की उसके दान का पैसे उसके भगवान् की मूर्ती पे ही लगेगा | फलां भगवान् जी आगे बढ़ गए हैं, फलां जी पीछे रह गए बोल कर मंदिर प्रसाशन इसमें कम्पितीसन भी करवाता है | नौबत तो यहाँ तक पहुंची की सरे नॉर्थ इंडियन मंदिर के बाहर टेंट मैं भजन कीर्तन कर रहे हैं और सभी साउथ इंडियन मंदिर के गर्भ गृह मैं अपने भगवन की आराधना मैं लगे रहे | लगता है भगवान् वेंकटेश्वर या अयाप्पन स्वामी ने अपने भक्तों को स्वप्न मैं आदेश दिया की जाओ और जा कर श्री राम, कृष्ण या बजरंग बलि के भक्तों से प्रतियोगिता करो और उन्हें अपना विरोधी मानो |