ब्राह्मणोस्य मुखमासीत | बाहू राजन्यः कृतः |
जन्मना जायते शूद्रः
संस्कारात् भवेत् द्विजः |
वेद-पाठात् भवेत् विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः | अत्री स्मृति १४१
उरू तदस्य यद्वैश्यह | पद्भ्यां शुद्रो अजायत॥
उपरोक्त पुरुष शुक्त श्लोक का अर्थ ये लगाया जाता है कि "मानस यग्य में उस विराट पुरुष द्वारा स्वें का उत्सर्ग करने से उसके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जाँघों से वैश्य और चरणों से शुद्र ने जन्म लिया." और इस आधार पे कई जन्म से ब्राहमणों को श्रेष्ठ मान बैठने की भूल कर रहे हैं. उस पुरुष शुक्त में ऐसा कहीं नहीं कहा गया की विराट पुरुष के मुख से बना ब्राहमण अन्य से श्रेष्ठ है.
वास्तव में किसी भी श्लोक, पद, कविता, दोहा के दो अर्थ निकाले जा सकते हैं : १. शाब्दिक अर्थ , २. भावार्थ. शाब्दिक अर्थ के सहारे श्लोक, पद, कविता, दोहा के वास्तविक ज्ञान/अर्थ तक नहीं पहुंचा जा सकता, क्यूँकी शाब्दिक अर्थ हमेशा ही उसी शब्द और श्लोक तक सिमित रह जाता है. पर भावार्थ शब्द और श्लोक के वास्तविक अर्थ को लेते हुए पूरी कहानी कहती है. उपरोक्त श्लोक का भावार्थ कुछ इस प्रकार है :
वेद वांग्मय में पुरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त आत्म तत्व की कल्पना आदि पुरुष यानी विराट पुरुष के रूप में हुई. जिसमें मुख को ब्राह्मण, भुजाओं को क्षत्रिय, जंघा को वैश्य और चरणों को शुद्र कहा गया. इसीलिए उस समय की सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों को हीन माना गया जबकी वेदों का ये अभिप्राय नहीं था.
वही पुरुष शुक्त ये भी कहता है की ये पृथ्वी भी शुद्र है क्यूंकि उस विराट पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष, मस्तक से धू लोक और चरणों से पृथ्वी. तो क्या पृथ्वी भी शुद्र है?
शुद्र तो उनके चरण हैं जिनकी आँखें शुर्य हैं , जिसका मन चन्द्रमा है और जिसकी सासें हैं . ऐसे ब्रह्माण्ड को धारण करनेवाला शुद्र है.
वर्ण का शाब्दिक अर्थ है रंग. शास्त्रों में त्रिगुण यानी सत्व, रजो और तमो नाम की मनःस्थिति/मनोदशा को वर्ण यानी रंगों की माध्यम से दर्शाया जाता है. सत्व सफ़ेद, राजस लाल, तमस को कृष्ण यानी काले रंग से अभिव्यक्त किया जाता है. जब मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए कभी जंगली पशुओं से और कभी दुसरे समूहों की आक्रमण से लड़ रहा था, ऐसी व्यवस्था में जो सत्व गुण प्रधान थे, जिन्होंने समाज के बौद्धिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन का जिम्मा उठाया वे ब्रह्मण कहलाये. जो रजो गुण प्रधान थे, योद्धा थे वीर थे, युद्ध में कुशल और निपुण थे, जिन्होंने अपने समाज-समुदाय के रक्षा की जिम्मेदारी उठाई वे क्षत्रिय कहलाए. जो रजो और तमो गुण प्रधान थे, जिन्होंने समाज के पालन पोषण, भोजन और रोज-मर्रा की जरूरतों की जिम्मेदारी उठाई वे वैश्य कहलाए. जो तमो गुण प्रधान थे जिन्होंने अपने समाज-समुदाय के सेवा की जिम्मेदारी उठाई वे शुद्र कहलाए. वर्ण की इस व्यवस्था का अपने प्राचीन रूप में अपने जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं था.
जन्म से कोई ब्राह्मण, कोई क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र नहीं होता - इसकी घोसना वेद व ऋषि याज्ञवल्क करते हैं, और समस्त ऋषि उनका समर्थन करते हैं. ... क्या कहा था ऋषि याज्ञवल्क ने, मिथिला के राजा जनक के सभा में ? विवाचार्य ने प्रश्न किया था - ब्रह्म को जान लेने की बाद मनुष्य क्या बनता है और वह कैसे आचरण करता है ? ऋषि याज्ञवल्क ने कहा था ब्रह्म को जान लेने के बाद ही मनुष्य ब्राह्मण बनता है. और उसे जान लेने के बाद जो भूख-प्यास, शोक-मोह, जन्म-मृत्यु से परे है. ब्राह्मण पुत्र की कामना, धन की कामना और संसार की कामना से मुक्त हो भिक्षा पे निर्वाह करता है. ब्राह्मण वही है जो ब्रह्म को जानता है, बाकी सब मृत्यु और शोक के ग्रास हैं.
जब वेद ये घोषणा कर रहे हैं, तो फिर कोई जन्म से श्रेष्ठ कैसे? वेद उस व्यवस्था के खिलाफ है जो प्रत्येक मनुष्य को सामाजिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष का अवसर ना दे. हर मनुष्य को अपना कर्म चुनने का आधिकार होना चाहिए क्यूंकि वही पुरुषार्थ है. श्रम का विभाजन किसी एक वर्ण का आधिकार नहीं हो सकता. यदि भार्गव राम परसु उठा कर २१ बार क्षत्रिय का विनाश कर सकते हैं तो चन्द्रगुप्त (जिसे कई लोग शुद्र मानते थे) भी राज धर्म धारण कर सकता है. यदि विश्वरत विश्वामित्र ब्राह्मण बन सकते हैं चन्द्रगुप्त भी क्षत्रिय बन सकता है. यदि लोमहर्षण शुद्र व्यास पद पा सकते हैं तो कर्ण को भी शास्त्र विद्या सिखने का आधिकार मिलना चाहिए.
प्रत्येक व्यक्ती असीम संभावनाओं का स्वामी है और उन असीम संभावनाओं का द्वार खोलना ही वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए.
भगवान कृष्ण ने भी भगवदगीता में कहा है -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ - भगवद गीता ४.१३
भावार्थ : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान॥
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ब्राह्मण वे हैं जो सात्विक गुण प्रधान हैं,
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ - भगवद गीता १८.४२
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ - भगवद गीता १८.४२
भावार्थ : अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं॥
क्षत्रिय वे हैं जो रजो गुण प्रधान हैं.
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥ - - भगवद गीता १८.४३
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥ - - भगवद गीता १८.४३
भावार्थ : शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं॥
वैश्य वे हैं जो रजो और तमो गुण प्रधान हैं और शुद्र वे हैं जो तमो गुण प्रधान हैं.
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥ - भगवद गीता - १८.४४
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥ - भगवद गीता - १८.४४
भावार्थ : खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है॥
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वर्ण व्यवस्था में कोई हीन और कोई महान नहीं. जैसे मस्तक, भुजाओं, जाँघों और परों का एक व्यक्ती के कल्याण के लिए एक साथ मिल कर काम करना आवश्यक है, उसी प्रकार समाज के कल्याण के लिए सभी वर्णों की समान रूप से आवश्यकता है.
जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज, वेद के पठान-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है.
साभार : डॉ. चन्द्र प्रकाश द्वेवेदी निर्देशित "उपनिषद गंगा".